वो राब्ते भी अनोखे जो दूरियाँ बरतें वो क़ुर्बतें भी निराली जो लम्स को तरसें सवाल बन के सुलगते हैं रात भर तारे कहाँ है नींद हमारी वो बस यही पूछें बुलाता रहता है जंगल हमें बहानों से सुनें जो उस की तो शायद न फिर कभी लौटें फिसलती जाती है हाथों से रेत लम्हों की कहाँ है बस में हमारे कि हम उसे रोकें हक़ीक़तों का बदलना तो ख़्वाब है 'फ़िक्री' मगर ये ख़्वाब है ऐसा कि सब जिसे देखें