वो राहबर तो नहीं था इआदा क्या करता बना के राह में वो कोई जादा क्या करता नहा रहा हो उजालों के जो समुंदर में वो ले के ज़ुल्मत-ए-शब का लबादा क्या करता हर एक शख़्स जहाँ मस्लहत से मिलता हो वहाँ किसी से कोई इस्तिफ़ादा क्या करता न जिस में रंग न ख़ाका न कोई अक्स-ए-जमाल बना के ऐसी मैं तस्वीर-ए-सादा क्या करता महाज़-ए-जंग में वो अपने फ़र्ज़ की ख़ातिर न देता जान तो आख़िर पियादा क्या करता जहाँ पे होता हो इंसानियत का ख़ूँ 'आरिफ़' मैं ऐसी दुनिया में रह कर ज़ियादा क्या करता