वो रश्क-ए-मेहर-ओ-क़मर घात पर नहीं आता कभी अँधेरे-उजाले नज़र नहीं आता ये कह दो कूचा-ए-जानाँ के जाने वालों से उधर जो कोई गया फिर इधर नहीं आता तिलाई-रंग ये क्या क्या चले हैं तलवारें किसी के क़ब्ज़े में वो कुंज-ए-ज़र नहीं आता वो ना-तवाँ हूँ कि सुनता नहीं कोई मेरी वो ज़ार हूँ कि किसी को नज़र नहीं आता मिरी तरफ़ से ये ग़फ़लत है हम-सफ़ीरों को चमन से उड़ के कभी एक पर नहीं आता नहीं नसीब में अपनी जो दौलत-ए-बेदार तो ख़्वाब में भी मिरा स्वयंवर नहीं आता अज़ाब-ए-नज़अ' ही क़ासिद का इंतिज़ार मुझे अजल ही आए अगर नामा-बर नहीं आता वो कौन लोग हैं जिन पर हुमा है साया-फ़गन यहाँ तो बूम भी बाला-ए-सर नहीं आता यहाँ वसीला-ए-रोज़ी फ़क़त है याद-ए-ख़ुदा कि हेच-कारा हैं कोई हुनर नहीं आता बशर को चाहने अंजाम-ए-कार की कुछ फ़िक्र जहान में कोई बार-ए-दिगर नहीं आता सनम को हाथ से जाने न दीजिए ऐ 'बहर' निकल के मुश्त-ए-सदफ़ से गुहर नहीं आता