वो रोज़ नया फ़ित्ना उठाने पे लगा है कम-ज़र्फ़ है ज़ात अपनी दिखाने पे लगा है मैं चाहता हूँ ख़त्म हो ये आपसी नफ़रत वो है कि फ़क़त बात बढ़ाने पे लगा है दुश्मन को तड़पता हुआ छोड़ आया हूँ मैं भी हर तीर मिरा जा के निशाने पे लगा है हक़ बात की ताईद कोई जुर्म हो जैसे हर शख़्स मुझे आँखें दिखाने पे लगा है जिस शख़्स की अपनी कोई पहचान नहीं है वो नाम-ओ-निशाँ मेरा मिटाने पे लगा है मैं इतना परेशान तो ख़ुद से भी नहीं था जो सदमा तिरे छोड़ के जाने पे लगा है नाकाम था नाकाम है नाकाम रहेगा बेकार ये दिल उस को भुलाने पे लगा है इंसाफ़ की उम्मीद रखूँ किस से 'सुलैमान' मुंसिफ़ मिरे क़ातिल को बचाने पे लगा है