वो रुख़्सत की घड़ी वो दीदा-ए-नम याद आते हैं न जाने आज क्यूँ भूले हुए ग़म याद आते हैं ये चश्म-ए-दोस्त की साज़िश नहीं तो और फिर क्या है कि मेरे मुंदमिल ज़ख़्मों के मरहम याद आते हैं हुआ है जब से दिल सैद-ए-सितम-हा-ए-ग़म-ए-दौराँ वो याद आते तो हैं लेकिन बहुत कम याद आते हैं यहाँ हम ग़म ग़लत करने को आए थे मगर साक़ी क़यामत है कि मयख़ाने में भी ग़म याद आते हैं कोई जब छेड़ता है क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन 'क़ैसर' तो दीवानों को उन की ज़ुल्फ़ के ख़म याद आता है