वुफ़ूर-ए-शौक़ में जब भी कलाम करते हैं तो हर्फ़ हर्फ़ को हुस्न-ए-तमाम करते हैं घने दरख़्तों के साए की उम्र लम्बी हो कि इन के नीचे मुसाफ़िर क़याम करते हैं उसे पसंद नहीं ख़्वाब का हवाला भी तो हम भी आँख पे नींदें हराम करते हैं न ख़ुशबुओं को पता है न रंग जानते हैं परिंद फूलों से कैसे कलाम करते हैं रवाँ-दवाँ हैं हवा पर सवारियाँ कैसी जिन्हें दरख़्त भी झुक कर सलाम करते हैं चमन में जब से उसे सैर करते देख लिया उसी अदा से ग़ज़ालाँ ख़िराम करते हैं अब इस को याद न होगा हमारा चेहरा भी तमाम शायरी हम जिस के नाम करते हैं