वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ में वो समाते भी नहीं जल्वा-अफ़रोज़ भी हैं सामने आते भी नहीं पारसाई का हमारी नहीं दुनिया में जवाब वक़्त आ जाए तो दामन को बचाते भी नहीं हम वो मय-कश हैं की साक़ी की नज़र फिरते ही जाम की सम्त निगाहों को उठाते भी नहीं ख़ुद ही रंग-ए-रुख़-ए-महबूब उड़ा जाता है हम तो रूदाद-ए-ग़म-ए-इश्क़ सुनाते भी नहीं बू-ए-गुल जिन का किया करती थी रह रह के तवाफ़ अब चमन में वो नशेमन नज़र आते भी नहीं हम वो बरबाद-ए-मोहब्बत हैं ख़ुदा शाहिद है आग दिल में जो लगी हो तो बुझाते भी नहीं वक़्त नाज़ुक है ये क्या सोच रहे हो 'शाइर' ऐसी ज़ुल्मत में कोई शम्अ' जलाते भी नहीं