वफ़ा की आस में दिल दे के पछताया नहीं करते ये नख़्ल-ए-आरज़ू है इस में फल आया नहीं करते ख़यालों में जब आते हैं तो पहरों जा नहीं पाते हम अब बे-वस्ल तन्हाई भी घबराया नहीं करते हमारी नींद से क्या वास्ता है उन की नींदों को सुना है वो भी अब आराम फ़रमाया नहीं करते ज़रा से क्या पयाम आता है दुश्मन जल के मरते हैं ख़ुदा का शुक्र है वो ख़ुद इधर आया नहीं करते न तुम आओ न नींद आए न ही कम-बख़्त मौत आए ये कैसी कश्मकश है यूँ भी तड़पाया नहीं करते हमारी तिश्नगी-ए-दीद इक दिन रंग लाएगी शहीदों की क़सम प्यासों को तरसाया नहीं करते हमारे गिर्द जो फिरते थे ख़ुश-हाली के आलम में शिकायत क्या कि 'ताज' अब भूल कर आया नहीं करते