ये कश्मकश-ए-मुनइ'म-ओ-नादार कहाँ तक सरमाया-ओ-मेहनत की ये तकरार कहाँ तक टूटेगी न ज़ुल्मात की दीवार कहाँ तक उट्ठेगी न वो चश्म-ए-सहर-बार कहाँ तक इस शहर-ए-दिल-आज़ार में अब देखना ये है रहती है यूँही यूरिश-ए-आज़ार कहाँ तक ख़ुशनूदी-ए-सय्याद की ख़ातिर यूँही यारो ज़िंदानों को कहते रहें गुलज़ार कहाँ तक इक रोज़ बिल-आख़िर मुझे तस्लीम करेंगे झुटलाएँगे मुझ को मिरे अग़्यार कहाँ तक इस तरह तो सर मा'रका-ए-दार न होगा छानोगे 'वफ़ा' कूचा-ए-दिलदार कहाँ तक