वफ़ा-परस्त जहान-ए-वफ़ा को ले डूबे अजीब बात है बंदे ख़ुदा को ले डूबे ये काली काली घटा जो बरसने वाली है मज़ा तो जब है किसी पारसा को ले डूबे सफ़ीने ये तो नहीं हैं जो हैं किनारों पर सफ़ीने वो थे जो मौज-ए-बला को ले डूबे तमाम अहल-ए-नज़ारा की लाज रख लेगी वो इक नज़र जो किसी की अदा को ले डूबे ये कैसे कैसे रिया-कार हैं ज़माने में सज़ा के नाम से चौंके जज़ा को ले डूबे बजा है शान-ए-करीमी ये सब ग़ुरूर मगर यही ग़ुरूर तो अहल-ए-ख़ता को ले डूबे हमेशा याद हमीं तक रहे हमारे ग़म वो दोस्त क्या जो किसी हम-नवा को ले डूबे