वाहिद परस्त इश्क़-ब-दामाँ बना दिया काफ़िर नज़र ने हम को मुसलमाँ बना दिया ग़ुंचे को गुल तो गुल को गुलिस्ताँ बना दिया ज़र्रे को तू ने मेहर-ए-दरख़्शाँ बना दिया हम थे फ़क़त फ़रिश्ता ही बनने पे मुतमइन ये है ख़ुदा की देन कि इंसाँ बना दिया दिल दे के दिल को लज़्ज़त-ए-ग़म दे ज़हे नसीब ख़ुद दर्द ही को दर्द का दरमाँ बना दिया अल्लाह जुनून-ए-इश्क़ की मोजिज़-नुमाइयाँ ईमाँ को कुफ़्र कुफ़्र को ईमाँ बना दिया किस ने समेट कर ग़म-ए-कौनैन को 'सहर' दिल को रहीन-ए-सोज़िश-ए-पिन्हाँ बना दिया