वक़ार अपने बुज़ुर्गों का ज़रा भी कम नहीं करते

वक़ार अपने बुज़ुर्गों का ज़रा भी कम नहीं करते
कभी हम ज़ालिमों के सामने सर ख़म नहीं करते

तवाज़ो के लिए काँटों की इन को पाल रखा है
सफ़र में हम मुसाफ़िर आबलों का ग़म नहीं करते

हम अहल-ए-ज़र्फ़ ख़ुशियों में भी क़ाबू ख़ुद पे रखते हैं
दुखी हो कर भी दुख से आस्तीनें नम नहीं करते

हमारे लफ़्ज़ ज़ख़्मों के लिए बनते तो हैं मरहम
मगर फिर भी मसीहाई का दावा हम नहीं करते

नज़र रखते हैं मुस्तक़बिल की जानिब हम नज़र वाले
कभी गुज़रे ज़मानों के लिए मातम नहीं करते

फ़लक वालों की जानिब उन की सारी मेहरबानी है
ग़रीबों पर तवज्जोह क़िब्ला-ए-आलम नहीं करते

किताबों से भरे बस्तों ने कुछ ऐसा दबाया है
'नियाज़' इस दौर के बच्चे बहुत ऊधम नहीं करते


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