वो बर्क़-ए-जल्वा दिखाए जमाल अगर अपना तो ऐ कलीम करें हम निसार सर अपना वो ज़ात-ए-पाक कहाँ ये निगार-ए-ख़ाक कहाँ जो देखे उस को ज़रा देखे मुँह बशर अपना कहीं ख़िज़ाँ ही बना वो कहीं बहार बना ग़रज़ हर एक चमन में किया गुज़र अपना बसा है मेरी ही आँखों में कुछ नहीं वो शोख़ दिलों में सब के बनाया है उस ने घर अपना हरीम-ए-का'बा में बुत-ख़ाना में कलीसा में बनाए क़िबला तुम्हें साहिब-ए-नज़र अपना मक़ाम-ए-इबरत-ओ-हसरत सरा-ए-फ़ानी है बना लिया है जिसे ग़ाफ़िलों ने घर अपना गुहर न समझो इन अश्कों को हैं ये ला'ल-ए-सपेद दिखा रही है ये ए'जाज़ चश्म-ए-तर अपना समझ के ऐब करेंगे हुसूद मुझ पर तान यही है सोच दिखाऊँ किसे हुनर अपना फ़ना की राह में वो गर्म-रौ हूँ ऐ 'आजिज़' कि साया भी नहीं वल्लाह हम-सफ़र अपना