वो चाँदनी वो चाँद सा पैकर उतार दे पहलू में कोई ख़्वाब का मंज़र उतार दे महफ़ूज़ अब नहीं हैं मिरे दिल की सरहदें कह दो किसी ग़नीम से लश्कर उतार दे कब से शरीक हूँ मैं जिहाद-ए-हयात में बहर-ए-नजात कोई मिरा सर उतार दे टूटे तिरा ख़याल तो बिस्तर की हर शिकन आँखों में जैसे नींद के नश्तर उतार दे दिल से लगाए कौन मिरा ग़म मिरी ख़ुशी हर शख़्स दिल का बोझ समझ कर उतार दे जुम्बिश जब उस के लब को हुई तो पता चला चटके कली तो रूह में नश्तर उतार दे कब से उठाए फिरता हूँ तन्हाइयों का बोझ दिल से कोई ये दर्द का पत्थर उतार दे ऐ 'बद्र' अश्क-ए-ग़म के अलावा कोई तो हो तीरा-शबी में जो मह-ओ-अख़्तर उतार दे