वो एक लम्हा कि मुश्किल से कटने वाला था मैं तंग आ के ज़मीं में सिमटने वाला था मिरा वजूद मुज़ाहिम था चारों जानिब से इसी लिए तो मैं रस्ते से हटने वाला था मैं तख़्त-ए-इश्क़ पे फ़ाएज़ था जानता था कहाँ कि एक दिन मिरा तख़्ता उलटने वाला था जो बात की थी हवा में बिखरने वाली थी जो ख़त लिखा था वो पुर्ज़ों में बटने वाला था ये इंतिहा थी कि इक रोज़ मैं भी दानिस्ता ग़ुबार बन के हवा से लिपटने वाला था फिर इक सदा पे मुझे फ़ैसला बदलना पड़ा मैं यूँ तो उस की गली से पलटने वाला था 'नसीम' ताज़ा हवा ने दिया था मुझ को पयाम ग़ुबार दिल पे जो छाया था छटने वाला था