वो एक शख़्स मिरे पास जो रहा भी नहीं वो ख़ुद को दूर कभी मुझ से कर सका भी नहीं निगाह जिस की मिरी सम्त आज तक न उठी मिरे सिवा वो किसी शय को देखता भी नहीं मिरे ख़ुतूत तो झल्ला के फाड़ देता है अजीब बात है पुर्ज़ों को फेंकता भी नहीं तमाम वक़्त है वो महव-ए-गुफ़्तुगू मुझ से ये कान जिस की सदाओं से आश्ना भी नहीं हमारे सीने में छुप जाए डर के दुनिया से वो जिस के लम्स ने अब तक हमें छुआ भी नहीं जिधर भी देखूँ वही वो दिखाई देता है मज़े की बात तो ये है कि वो ख़ुदा भी नहीं