वो हुस्न-ए-ज़न से जाए न हुस्न-ए-यक़ीं से हम बैठे हैं शर्त बाँध के एक मह-जबीं से हम हम ने बिसात-ए-इल्म-ओ-सियासत तो जीत ली दामन को सी रहे हैं मगर आस्तीं से हम लोगों ने आसमाँ पे कमंदें भी डाल दीं फ़ारिग़ नहीं हैं अब भी कफ़-ए-संदलीं से हम कोई तो मौज आ के हमें भी उछाल दे कब तक पड़े रहें सदफ़-ए-तह-नशीं से हम देखा तो जुज़ अलम नहीं हंगामा-ए-वजूद बे-कार मुन्फ़इल रहे दुनिया-ओ-दीं से हम तख़लीक़-ए-शेर के लिए लाज़िम है ख़ून-ए-दिल फ़स्लें उगा के लाएँ हैं मुश्किल ज़मीं से हम