वो जो कहता था ज़िंदगी मुझ को दर्द-ए-दिल दे गया वही मुझ को उस से मिलने मैं वक़्त पर जाऊँ उस ने तोहफ़े में दी घड़ी मुझ को तेरी फ़ुर्क़त में झील सी आँखें लग रहीं जाने क्यों नदी मुझ को फिर अचानक किसी की याद आई जब मिली मेरी डायरी मुझ को अब अंधेरे सुकून देते हैं चुभ रही है ये रौशनी मुझ को कितनी लम्बी है हिज्र की घड़ियाँ एक इक पल लगे सदी मुझ को सब मयस्सर तो है मुझे लेकिन खल रही क्यों तिरी कमी मुझ को रूह थी क़ैद उस 'इनायत की जिस्म ने कर दिया बरी मुझ को