वो कौन सी है जा तिरा जल्वा जहाँ नहीं का'बा कलीसा दैर-ओ-हरम में कहाँ नहीं हम बंदा-ए-तलब हैं हमारा मकाँ नहीं जिस सरज़मीं के हम हैं वहाँ आसमाँ नहीं मुजरिम तो बात करते हैं बढ़ चढ़ के हर जगह होती है बे-क़ुसूर के मुँह में ज़बाँ नहीं जब भी खुली ज़बाँ तो नफ़ी में खुली तिरी क्या है लुग़ात-ए-हुस्न में ये लफ़्ज़ हाँ नहीं या-रब हो ख़ैर हम पे वो इतना ख़फ़ा है क्यों खाईं रक़ीब ने तो नई चुग़लियाँ नहीं रूदाद-ए-हिज्र तुम को सुनाऊँ 'जलाल' क्या तशरीह के लिए मिरे मुँह में ज़बाँ नहीं