वो कू-ए-यार को जाते हैं बे-नियाज़ नहीं हैं संग-ए-दिल ही वहाँ कोई दिल-नवाज़ नहीं है मुख़्तसर सा ही क़िस्सा हयात का लोगो किसी के हिस्से की तो उम्र कुछ दराज़ नहीं दिखाए राह मगर कैसा आफ़्ताब है वो हो जिस को मश्रिक-ओ-मग़रिब में इम्तियाज़ नहीं बुरी नहीं है ख़ुद-आराई पर ये ठीक नहीं कि समझो ख़ुद सा जहाँ में है सरफ़राज़ नहीं ये आबशार से मग़्मूम चश्म से जो गिरे करेंगे क्या कहो पत्थर का दिल गुदाज़ नहीं करेंगे सज्दे जहाँ पर दिखे तिरा पैकर है बुत-परस्ती को दरकार जा-नमाज़ नहीं ग़ुरूब-ओ-शर्क़ हैं तक़दीर-ख़ुर मगर मुझ को नशेब ही नज़र आता है अब फ़राज़ नहीं निकाल नक़्स मगर इतना याद रख 'नाक़िद' है नुक्ता-चीनी से मुझ को भी एहतिराज़ नहीं