वो सफ़ाई कभी जो हम से मुलाक़ात में थी साफ़ कुल साख़तगी उस की हर इक बात में थी जो भली आ के कही सेहर है समझा न उसे कल बुरी जो कही दाख़िल वो करामात में थी है दिल-ए-ग़ैर को उस नावक-ए-मिज़्गाँ से अब उन्स जो कि नित अपने जिगर-दोज़ियों के घात में थी सुनते हैं ग़ैर से वो बात ब-आवाज़-ए-बुलंद क्या क़यामत है कि जो हम से इशारात में थी क्या ग़ज़ब है वही आईना-पन अब लाख से है जो सफ़ाई कभी हम से किसी औक़ात में थी कोई हाजत नहीं अब ग़ैर की जो हो न रवा ये तो आगे न मिरे क़िबला-ए-हाजात में थी इतना जूया-ए-मुलाक़ात न होता था 'लुत्फ' शक्ल निभने की जो कुछ थी सो मुसावात में थी