वो शब के साए में फ़स्ल-ए-नशात काटते हैं हम अपनी ज़ात के हुजरे में रात काटते हैं अजीब लोग हैं इस अहद-ए-बे-मुरव्वत के ज़बान काट न पाएँ तो बात काटते हैं ये लम्हा अहल-ए-मोहब्बत पे सख़्त भारी है ये लम्हा अहल-ए-मोहब्बत के साथ काटते हैं थकन से पूरा बदन चूर चूर होता है पहाड़ काटते हैं हम कि रात काटते हैं ये रंग ले के कहाँ आ गए हो तुम 'अज़हर' यहाँ तो लोग मुसव्विर के हाथ काटते हैं