वो शब-ए-ग़म जो कम अँधेरी थी वो भी मेरी अना की सुबकी थी ग़म मिरी ज़िंदगी में टूट गिरा वर्ना ये शोर-दार नद्दी थी दिन भी शब-रंग बन गए अपने पहले सूरज से आँख मिलती थी क्या मक़ालात-ए-आशिक़ी पढ़ते बज़्म में हम ने आह खींची थी जल रहे थे हरे-भरे जंगल ऐसी बे-वक़्त आग फैली थी मैं खड़ा था उखड़ते पत्थर पर वो उसी तरह शांत लगती थी इस लिए बे-कराँ में जा पहुँचे दूर तक रहगुज़र अँधेरी थी इस लिए शहर में रहे बेताब ताब-कारी हवा में फैली थी चंद रोज़ और मुंतज़िर रहते वैसे मिल कर भी जान देनी थी शब-ए-रंज-ओ-महन का ज़िक्र न कर उस की हर इक घड़ी नशीली थी हम भी 'असलम' इसी गुमान में हैं हम ने भी कोई ज़िंदगी जी थी