वो शजर क्या जो पुर-समर न हुआ दिल वो क्या जिस में तेरा घर न हुआ बेबसी भी अजीब आलम है हौसला कोई बारवर न हुआ दश्त-ए-वहशत में एक भी न मिला रास्ता जो कि पुर-ख़तर न हुआ फ़स्ल-ए-गुल आई भी तो कब आई जबकि बाज़ू में कोई पर न हुआ पेश रहता है अब तसव्वुर-ए-यार दर्द-ए-दिल दे के बे-ख़बर न हुआ मिलना कैसा कि याद भी न किया मेरे नालों का कुछ असर न हुआ दोश तक़दीर का ही फिर निकला ख़त जो लिक्खा तो नामा-बर न हुआ ये भी अच्छा हुआ कि तू आ कर मेरी मय्यत पे नौहागर न हुआ अपनी क़िस्मत को आज़मा लेता क्या कहूँ उस का संग-ए-दर न हुआ सोज़िश-ए-ग़म से अब कहाँ आँसू उन का दामन भी आज तर न हुआ रस्म-ए-उल्फ़त भी एक गहरा राज़ कोई भी इस से बा-ख़बर न हुआ ज़ुल्म कब तक भला सहे उन के एक पत्थर हुआ जिगर न हुआ ऐसी लिक्खी ग़ज़ल कि यारों से लफ़्ज़ कोई इधर उधर न हुआ मर-मिटे जिस के इश्क़ में 'सय्याफ़' वो ही अफ़्सोस बा-ख़बर न हुआ