वो शख़्स दो को हमेशा ही तीन कहता है कमाल ये भी है ख़ुद को ज़हीन कहता है ज़माना उस के लिए मह-जबीन कहता है वो ख़ुद को फिर भी तो पर्दा-नशीन कहता है कहें जो सच तो है मुमकिन ज़बान साथ न दे मगर वो झूट बहुत बेहतरीन कहता है है टूटना उसे इक दिन ज़रूर टूटेगा गुमान है ये जिसे तू यक़ीन कहता है ये बेवक़ूफ़ बहुत लगती है अवाम उसे तभी तो रोज़ ही जुमले नवीन कहता है करो किसी से भी मज़हब के नाम पर नफ़रत बताए कोई हमें कौन दीन कहता है हुनर भी ख़ूब तिजारत का देखिए साहब सड़े हुए को वो ताज़ा-तरीन कहता है बुराई करता है मेरी वो पीठ पीछे भले हर एक शे'र पे तो आफ़रीन कहता है ये लफ़्ज़ आते हैं दीदार हुस्न का करके ग़ज़ल 'अनीस' तभी तो हसीन कहता है