वो शोख़ दिल-ओ-जाँ की तमन्ना तो न निकला शो'ला तो न निकला वो शरारा तो न निकला महसूस किया दर्द के हर रूप में उस को आवाज़ का अफ़्सूँ कभी झूटा तो न निकला महरूमी-ए-जावेद ने दोनों ही को मारा ये राज़-ए-मोहब्बत कोई गहरा तो न निकला ये दिल का ख़राबा ही तिरी राहगुज़र थी काबा तो न निकला वो कलीसा तो न निकला वो मेरे मुक़द्दर की स्याही था सरापा नूर-ए-शब-ए-महताब सुनहरा तो न निकला हम भी किसी शीरीं के लिए ख़ाना-बदर थे फ़रहाद रह-ए-इश्क़ में तन्हा तो न निकला इस में तिरी ख़ल्वत का हर इक रंग है पाया ये चाँद सर-ए-चर्ख़ अकेला तो न निकला पहले से बढ़ी और ग़म-ए-इश्क़ की तल्ख़ी तू भी मिरे दम-साज़ मसीहा तो न निकला अंदाज़-ए-बयाँ तेरा 'अज़ीम' और ही कुछ है देखे सभी फ़नकार प तुझ सा तो न निकला