वो यक़ीं जो क़यास लगता है वहम ही की असास लगता है वज़्अ'-दारी को ओढ़ कर अक्सर आदमी बे-लिबास लगता है आइने में ख़ुद अपना चेहरा भी इन दिनों ना-शनास लगता है रुत ख़िज़ाँ की नहीं कहीं लेकिन बाग़ सारा उदास लगता है गुल खिलाए कहीं न वो पौदा देखने में जो घास लगता है पास जिस के है दिल कबूतर का ज़ाहिरन बे-हिरास लगता है याद जिस की लिए है दिल 'नादिम' दूर हो कर भी पास लगता है