याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है वाँ हाथ में आईना है गुल पैरहनी है हाथों से हमें इश्क़ के दिन रात नहीं चैन फ़रियाद ओ फ़ुग़ाँ दिन को है शब नारा-ज़नी है हुश्यार हो ग़फ़लत से तू ग़ाफ़िल न हो ऐ दिल अपनी तो नज़र में ये जगह बे-वतनी है कुछ कह नहीं सकता हूँ ज़बाँ से कि ज़रा देख क्या जाए है जिस जाए न कुछ दम-ज़दनी है मिज़्गाँ पे मिरे लख़्त-ए-जिगर ही नहीं यारो इस तार से वो रिश्ता अक़ीक़-ए-यमनी है लिख और ग़ज़ल क़ाफ़िए को फेर 'ज़फ़र' तू अब तब्अ' की दरिया की तिरी मौज-ज़नी है