या मह-ओ-साल की दीवार गिरा दी जाए या मिरी ख़ाक ख़लाओं में उड़ा दी जाए कैसे आवाज़ हरीम-ए-रग-ए-जाँ तक पहुँचे इतनी दूरी से तुझे कैसे सदा दी जाए है तो फिर कौन है उस ओट में देखूँ तो सही दरमियाँ से ये मिरी ज़ात हटा दी जाए तेरे बस में है तो फिर या मुझे पत्थर कर दे या मिरी रूह की ये प्यास बुझा दी जाए चखने पाए न कोई बूँद ये जलती मिट्टी अब्र उठ्ठे तो हवा तेज़ चला दी जाए कुछ दिनों बा'द उसे देखा तो देखा न गया जैसे इक जलती हुई जोत बुझा दी जाए ये लहकती हुई शाख़ें ये महकती बेलें ये हरा कुंज यहीं उम्र बता दी जाए आख़िर इस जंग में कुछ मेरा भी हिस्सा है 'बशीर' मेरे हिस्से की मुझे क्यूँ न रिदा दी जाए