याद आ कर हिज्र में तड़पा गई अच्छा हुआ ये भी आनी थी मुसीबत आ गई अच्छा हुआ जौर पर उन को हमें अपनी वफ़ा पर नाज़ था बात बढ़ कर इम्तिहाँ तक आ गई अच्छा हुआ दिल को हम तस्कीन क्या देते वो किस की मानता वो नज़र ख़ुद उस को कुछ समझा गई अच्छा हुआ फूल बन कर भी न मिल सकती थी उम्र-ए-जावेदाँ बिन खिले दिल की कली मुरझा गई अच्छा हुआ चार तिनकों के सिवा कुछ आशियाने में न था बर्क़ अब कुंज-ए-क़फ़स तक आ गई अच्छा हुआ हर ख़ुशी के साथ वाबस्ता थे रंज-ओ-फ़िक्र भी जल्द उन से ज़िंदगी उक्ता गई अच्छा हुआ तर्क-ए-दुनिया है 'शिफ़ा' अपना मक़ाम-ए-ज़िंदगी चार दिन दुनिया हमें बहला गई अच्छा हुआ