याद आती है तिरी यूँ मिरे ग़म-ख़ाने में खिल उठे जैसे गुलिस्ताँ किसी वीराने में अपने दिल ही में मकीं देखा उसे हम जिस को ढूँडते फिरते रहे का'बा-ओ-बुत-ख़ाने में दिल में थे शो'ला-फ़िशाँ हसरत-ओ-अरमाँ शब-ए-ग़म सैंकड़ों शम्अ' फ़रोज़ाँ थीं सियह-ख़ाने में थे तिरी बज़्म में सब जाम-ब-कफ़ ऐ साक़ी इक हमीं तिश्ना-दहन थे तिरे मयख़ाने में तीरगी में भी रहा जश्न-ए-चराग़ाँ का समाँ बर्क़ के शो'ले फ़रोज़ाँ रहे काशाने में मिरे अफ़्साने को अफ़्साना न समझो यारो है हक़ीक़त ही हक़ीक़त मिरे अफ़्साने में डाल दी साक़ी-ए-कौसर ने अज़ल से 'रिफ़अत' बादा-ए-इश्क़-ओ-मुहब्बत मिरे पैमाने में