याद आती रही भुला न सके शम्अ' जलती रही बुझा न सके चाँद-तारे गुल-ओ-चमन मिल कर दिल की इक दास्ताँ सुना न सके आस बाँधी थी जिन सितारों से देर तक वो भी जगमगा न सके नग़्मा क्या मुतरिबान-ए-अहद-ए-जदीद तार टूटे हुए मिला न सके आज वो रहबर-ए-ख़लाइक़ हैं ख़ुद को जो आदमी बना न सके पंजा-ए-गुल से भी ये मतवाले दामन-ए-ज़िंदगी छुड़ा न सके ग़म के मारे हुए क़ुलूब 'नुशूर' दर्द की सरहदों को पा न सके