याद है इक एक लम्हे का खिचाव देखना रात के क़ुल्ज़ुम में सदियों का बहाओ देखना वक़्त से पहले न फट जाए ग़ुबारा ज़ेहन का फैलने वाले ख़यालों का दबाओ देखना वो तो खो बैठा है पहले ही से अपनी रौशनी इस दिए को दूर ही से ऐ हवाओ देखना कुछ तो हों महसूस तुम को ज़िंदगी की उलझनें शहरियों ख़ाना-ब-दोशों के पड़ाव देखना वर्ना दो टुकड़ों में बट जाएगी उस की ज़िंदगी है ज़रूरत कितना धागे को खिचाव देखना फिर हवा से रूठ कर खोला है तू ने बादबाँ फिर ग़लत रुख़ पर न बह जाए ये नाव देखना