याद कर कर के तिरी याद मिटाने निकले ले के घी हाथ में हम आग बुझाने निकले हम फ़क़ीरों के क़लम से जो ख़ज़ाने निकले झोलियाँ ले के शहंशाह चराने निकले जैसे जंगल में कोई रात बिताने निकले घर से निकले तो लगा जान गँवाने निकले अपनी हालत का अब एहसास हुआ है ऐसे जैसे छप्पर कोई बरसात में छाने निकले भूकी धरती की अना आ गई दामन में मगर सारे आकाश में दो-चार ही दाने निकले कुछ थके-माँदों पे कुत्तों का बरसना देखा जब वो फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछाने निकले ख़ुद को समझाते हुए शहर से यूँ लौटे हैं जैसे परदेस कोई घर से कमाने निकले ऐसे इंसाँ से मुलाक़ात न करना बेहतर दिल के आँगन में जो दीवार उठाने निकले सादे लोगों को बहुत तंग किया है तू ने हम ही दीवानों से बल तेरे ज़माने निकले शेर कहते हैं जिसे बात वहीं ख़त्म हुई हम तो बस 'मीर' की इक रस्म निभाने निकले