याद की बस्ती का यूँ तो हर मकाँ ख़ाली हुआ बस गया था जो ख़ला सा वो कहाँ ख़ाली हुआ रात भर इक आग सी जलती रही थी आँख में और फिर दिन भर मुसलसल इक धुआँ ख़ाली हुआ ख़ुद-ब-ख़ुद इक दश्त ने तश्कील पाई और फिर लम्हा भर में एक शहर-ए-बे-कराँ ख़ाली हुआ आज जब उस लुत्फ़-ए-साया की ज़रूरत थी हमें कम-नसीबी ये कि दस्त-ए-मेहरबाँ ख़ाली हुआ रफ़्ता रफ़्ता भर गया हर सूद से अपना भी जी रफ़्ता रफ़्ता दिल से एहसास-ए-ज़ियाँ ख़ाली हुआ आज से हम भी अकेले हो गए इस भीड़ में ध्यान में था जो भरा सा आसमाँ ख़ाली हुआ