याद तेरी फ़लक-ए-पीर लिए बैठे हैं शिकवा-ए-गर्दिश-ए-तक़दीर लिए बैठे हैं बे-असर नाला-ए-शब-गीर लिए बैठे हैं एक टूटी हुई ज़ंजीर लिए बैठे हैं मुसहफ़-ए-हुस्न की तफ़्सीर लिए बैठे हैं दिल में हम आप की तस्वीर लिए बैठे हैं जाने कब मुंहदिम अरकान-ए-अनासिर हो जाएँ रेत पर जिस्म की ता'मीर लिए बैठे हैं उस ने दुज़्दीदा निगाहों से कभी देखा था दिल में अब तक ख़लिश-ए-तीर लिए बैठे हैं नक़्श-बर-आब है दर-अस्ल हबाब-ए-हस्ती कब ये मुमकिन है जो ता'मीर लिए बैठे हैं एक ही आह में बरहम है निज़ाम-ए-आलम अपने नालों में वो तासीर लिए बैठे हैं ज़िंदगी मौत है और मौत हयात-ए-जावेद ख़्वाब-ए-हस्ती की ये ता'बीर लिए बैठे हैं दौर-ए-हाज़िर में ग़नीमत है बहुत ऐ 'शो'ला' आप जो इज़्ज़त-ओ-तौक़ीर लिए बैठे हैं