याद उस की है और चाँदनी है रात इक हादिसा बन गई है ये मिरी शान-ए-बादा-कशी है उस नज़र ने पिलाई तो पी है तेरे ग़म ने मिरी ज़िंदगी को लज़्ज़त-ए-ज़िंदगी बख़्श दी है चुप भी हो जाओ ऐ लुटने वालो रहनुमाओं पे बात आ गई है ये तिरी हज्व-ए-बादा ही ज़ाहिद वज्ह-ए-बादा-कशी बन गई है अक़्ल क्या रहबरी कर सकेगी जो हमेशा भटकती फिरी है कितने माथों पे बल पड़ गए हैं बात हक़ की जहाँ मैं ने की है