यादों की जागीर न होती तो मैं यारो क्या करता गर उस की तस्वीर न होती तो मैं यारो क्या करता उस के दम से राँझा था मैं वो ही मिरी पहचान बनी वो गर मेरी हीर न होती तो मैं यारो क्या करता क़ाइल करना काम था मुश्किल पर वो क़ाइल हो ही गया लहजे में तासीर न होती तो मैं यारो क्या करता मेरा काम तमाम था वर्ना उस के नेक इरादे से हाथों में शमशीर न होती तो मैं यारो क्या करता अंदर से मैं टूटा-फूटा एक खंडर वीराना था ज़ाहिर जो ता'मीर न होती तो मैं यारो क्या करता ज़ुल्मत-ए-शब में रौशन 'अफ़ज़ल' इक नन्हा सा जुगनू था इतनी भी तनवीर न होती तो मैं यारो क्या करता