यार इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-ज़ार ही रहा बेदर्द दिल के दर पिए आज़ार ही रहा जिस दिन से दोस्त रखता हूँ उस को हिजाब-ए-हुस्न अपना हमेशा दुश्मन-ए-दीदार ही रहा ये इश्क़-ए-पर्दा-दर न छुपाया छुपा दरेग़ सीता हमेशा मैं लब-ए-इज़हार ही रहा क़ैद-ए-फ़रंग-ए-ज़ुल्फ़ न काफ़िर को हो नसीब जो वाँ फँसा हमेशा गिरफ़्तार ही रहा जाँ-बख़्श था जहाँ का मसीहा-ए-लब तिरा लेकिन मैं उस के दौर में बीमार ही रहा गर क़त्ल-ए-बे-गुनाह था मंज़ूर यार को मरने पे अपने मैं भी तो तय्यार ही रहा दौरान-ए-लुत्फ़ मैं तिरे ऐ मुबहविस-नवाज़ महरूम वस्ल से ये गुनहगार ही रहा 'हसरत' हमेशा उस की शब-ए-इंतिज़ार में जूँ ताला-ए-रक़ीब मैं बेदार ही रहा