यगानगी में भी दुख ग़ैरियत के सहता हूँ चमन में सब्ज़ा-ए-बेगाना बन के रहता हूँ तिरी निगाह-ए-मोहब्बत का आसरा पा कर फ़साना-ए-सितम-ए-रोज़गार कहता हूँ अज़ीम धारों का रुख़ फेरने का अज़्म लिए हक़ीर मौजों पे तिनके की तरह बहता हूँ है अपने ज़र्फ़ का मक़्सूद इम्तिहाँ शायद तिरे क़रीब पहुँच कर भी दूर रहता हूँ ख़ुद अपने से भी छुपाया है मुद्दतों जिस को क़रीब आओ कि तुम से वो बात कहता हूँ तुम्हारे बस में नहीं मेरे ज़ख़्म का मरहम मैं ज़िंदगी के हक़ाएक़ की चोट सहता हूँ फ़राज़-ए-दार भी 'हुर्मत' है एक मंज़िल औज कोई मक़ाम हो मैं सर-बुलंद रहता हूँ