यहाँ तक काम आया जज़्बा-ए-ज़ब्त-ए-फुग़ाँ अपना खड़े देखा किए जलते हुए हम आशियाँ अपना हक़ीक़त में वही है हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ अपना जिसे सब मौत कहते हैं वो है ख़्वाब-ए-गिराँ अपना बहुत कुछ हो चुका तय जादा-ए-उम्र-ए-रवाँ अपना पहुँच जाएगा मंज़िल पर किसी दिन कारवाँ अपना जहाँ में मौत ने उल्टी नक़ाब-ए-ज़िंदगी जिस दम यक़ीं से ख़ुद बदलना ही पड़ा आख़िर गुमाँ अपना यहीं किश्त-ए-तमन्ना है यहीं है मज़रा-ए-उक़्बा इसी दो दिन की दुनिया में है सारा इम्तिहाँ अपना नहीं जब कोई धब्बा दामन-ए-अस्लाफ़ पे अपने तो फिर अच्छे से अच्छा क्यूँ न होगा दूद-माँ अपना निशान-ए-क़ब्र भी ढूँढे से अब मिलता नहीं 'शो'ला' मिटा है सफ़्हा-ए-हस्ती से यूँ नाम-ओ-निशाँ अपना