यहाँ तो शहर से दीवार-ओ-दर ही ग़ाएब हैं छतों के बा'द मकानों को ले उड़ी है हवा तमाम शहर था सड़कों पे आज रात गए सुना है फिर से जवानों को ले उड़ी है हवा सफ़र है रात का सहरा से वापसी कैसी तुम्हारे सारे निशानों को ले उड़ी है हवा चलेगी वक़्त की आँधी तो किस को बख़्शेगी न जाने कितने ज़मानों को ले उड़ी है हवा रहा न अब वो लब-ए-जू रहा न मय-ख़ाना हमारे सारे ठिकानों को ले उड़ी है हवा चलो वो वस्ल का वा'दा भी कल-अदम ठहरा तुम्हारे सारे बहानों को ले उड़ी है हवा हवा के दोश पे उड़ते तो हैं परिंदे पर नज़र के सामने दानों को ले उड़ी है हवा पड़े हैं तीर यहाँ ग़ाज़ियों के तरकश में अँधेरी शब में कमानों को ले उड़ी है हवा ग़लत थे सारे वो मीज़ाँ फ़रेब तख़मीने हमारे सारे गुमानों को ले उड़ी है हवा रखे थे किस ने वो औराक़ ताक़चे पे 'अयाज़' वो चाहतों के फ़सानों को ले उड़ी है हवा