यही इक निबाह की शक्ल है वो जफ़ा करें मैं वफ़ा करूँ अगर इस पे भी न निभी तो फिर मिरे किर्दगार मैं क्या करूँ है मोहब्बत ऐसी बंधी गिरह जो न एक हाथ से खुल सके कोई अहद तोड़े करे दग़ा मिरा फ़र्ज़ है कि वफ़ा करूँ मैं हज़ार बातों में एक भी कभी उन से खुल के न कह सका अगर एक तरह की बात हो तो हज़ार तरह अदा करूँ जो हँसा तो सूरत-ए-ज़ख़्म-ए-दिल कि लहू के क़तरे टपक पड़े मैं सितम-रसीदा हूँ 'आरज़ू' न बहाऊँ अश्क तो क्या करूँ