यही समझा हूँ बस इतनी हुई है आगही मुझ को न रास आएगी शायद ज़िंदगी-भर ज़िंदगी मुझ को मिला रंज-ओ-अलम में भी सुरूर-ए-ज़िंदगी मुझ को नज़र आती है अक्सर तीरगी में रौशनी मुझ को न अब एहसास-ए-रंज-ओ-ग़म न एहसास-ए-ख़ुशी मुझ को ये किस मरकज़ पे ले आई मिरी दीवानगी मुझ को छलक आए हैं आँसू जब भी आई है हँसी मुझ को सुनाती ही रही पैग़ाम-ए-ग़म मेरी ख़ुशी मुझ को न देना था अगर कुछ इख़्तियार-ए-ज़िंदगी मुझ को तो क्यूँ ऐ ख़ालिक़-ए-आलम बनाया आदमी मुझ को सियह-बख़्ती हुई है साया-अफ़गन इस क़दर मुझ पर नज़र आती है हर-सू तीरगी ही तीरगी मुझ को 'जलीस' एहसान क्या कम है ये मेरी बद-नसीबी का तमीज़ अपने पराए की तो आख़िर हो गई मुझ को