यकायक अक्स धुँदलाने लगे हैं नज़र में आइने आने लगे हैं ज़मीं है मुंतज़िर फ़स्ल-ए-ज़िया की फ़लक पर नूर के दाने लगे हैं ख़िज़ाँ आने से पहले बाँच लेना दरख़्तों पर जो अफ़्साने लगे हैं हमें इस तरह ही होना था आबाद हमारे साथ वीराने लगे हैं फ़सील-ए-दिल गिरा तो दूँ मैं लेकिन इसी दीवार से शाने लगे हैं कभी फ़ाक़ा-कशी दिखलाएगी रंग इसी में सोलहों आने लगे हैं