यक-ब-यक मौसम की तब्दीली क़यामत ढा गई रुक के सुस्ताना था जब मुझ को कड़ी धूप आ गई दिन ढले किस को है तज्दीद-ए-सफ़र का हौसला आती जाती रहगुज़र नाहक़ मुझे बहका गई बू-ए-गुल मौज-ए-हवा है और हवा क्यूँकर रुके अब के मिट्टी ही की ख़ुशबू मेरा घर महका गई वो हवाएँ हैं उड़े जाते हैं पैराहन यहाँ ऐ उरूस-ए-ज़ीस्त तू क्यूँ घर से बाहर आ गई ये हवा आई कहाँ से इस से मैं वाक़िफ़ न था मेरे घर में जो चराग़ों का धुआँ फैला गई वो घटा फिर इस तरफ़ से लौट कर गुज़री नहीं सूखी धरती को जो दरिया का पता बतला गई ज़िंदगी मर्ग-ए-तलब तर्क-ए-तलब 'अख़्तर' न थी फिर भी अपने ताने-बाने में मुझे उलझा गई