यकता-ए-रोज़गार हमारा मकान था नीचे ज़मीं थी सर पे खुला आसमान था अब शाख़-ए-आशियाँ है न तिनके नसीब हैं आएगा ऐसा वक़्त भी किस को गुमान था आया जो इंक़लाब तो सब कुछ बदल गया पहले यही ज़मीं थी यही आसमान था तन्हाइयों ने फ़र्ज़-ए-ज़ियाफ़त अदा किया कल रात अपने घर ही में मैं मेहमान था आज उन पे मुल्तफ़ित है यही इंक़लाब है हम पर भी ये ज़माना कभी मेहरबान था उस को सज़ा दे हम को बरी किस तरह करे मुंसिफ़ का इम्तिहान हमारा बयान था 'कौसर' ख़ुदा से कोई शिकायत न कीजिए ये सोचिए कि पहले वो क्यों मेहरबान था