यास की कोहर में लिपटा हुआ चेहरा देखा जिस्म का एक बिगड़ता हुआ ख़ाका देखा अपनी सूरत भी न पहचान सकी आँख मिरी मुद्दतों ब'अद जो मैं ने कभी शीशा देखा शहर-ए-पुर-हौल में अब के ये अजब मंज़र था संग कुशादा था मगर संग को बस्ता देखा मैं भी गुम-सुम था कोई बात न करने पाया उस के होंटों पे भी जैसे कोई पहरा देखा तेरा क़ुर्ब एक तमन्ना सो तमन्ना ही रही हासिल-ए-उम्र यही है तिरा रस्ता देखा क्या अजब राख से पैदा हो कोई क़स्र-ए-अज़ीम हम ने आतिश में भी गुलज़ार का नक़्शा देखा मैं ही ग़मगीन नहीं तर्क-ए-तअल्लुक़ पे 'कमाल' वो भी नाशाद था उस को भी फ़सुर्दा देखा