ये अलग बात कि हर सम्त से पत्थर आया सर-बुलंदी का भी इल्ज़ाम मिरे सर आया ज़िंदगी छोड़ ने आई मुझे दरवाज़े तक रात के पिछले पहर मैं जो कभी घर आया बस दुआ है कि इलाही ये कोई ख़्वाब न हो कोई साया मिरे साए के बराबर आया बारहा सोचा कि ऐ काश न आँखें होतीं बारहा सामने आँखों के वो मंज़र आया क्या कहें अब तो ये आदत नहीं जाती हम से झूट भी बोले तो सच बन के ज़बाँ पर आया मैं नहीं हक़ में ज़माने को बुरा कहने के अब के मैं खा के ज़माने की जो ठोकर आया सुर्ख़ी-ए-मय भी ठहरती नहीं हर चेहरे पर बुल-हवस भी उसी मय-ख़ाने से हो कर आया