ये बला मेरे सर चढ़ी ही नहीं मैं ने कच्चे घड़े की पी ही नहीं आग ऐसी कभी लगी ही नहीं कि लगी दिल की फिर बुझी ही नहीं पी भी यूँ जैसे मैं ने पी ही नहीं मुँह से मेरे कभी लगी ही नहीं दिल न जब तक हुआ शरीक-ए-हिना मेहंदी उन की कभी पिसी ही नहीं शिकन-ए-ज़ुल्फ़ हल्क़ा-ए-गेसू बेड़ियाँ भी हैं हथकड़ी ही नहीं कौन लेता बलाएँ पैकाँ की आरज़ू कोई दिल में थी ही नहीं किस क़दर हूँ बना हवा में भी जैसे मैं ने शराब पी ही नहीं दिल में क्या आए क्या चले दिल से तुम ने चुटकी तो कोई ली ही नहीं सुब्ह का झुटपुटा था शाम न थी वस्ल की रात रात थी ही नहीं क्यूँ सुने शैख़ क़ुलक़ुल-ए-मीना उस ने ऐसी कभी सुनी ही नहीं आए आने को फ़स्ल-ए-गुल सौ बार मेरे दिल की कली खिली ही नहीं हाए सब्ज़े में वो सियह बोतल कभी ऐसी घटा उठी ही नहीं लाग भी दिल से है लगाव के साथ दुश्मनी भी है दोस्ती ही नहीं मुँह लगाना मिरा इक आफ़त था ख़ुम में वो चीज़ जैसे थी ही नहीं बज़्म-आरा-ए-हश्र के सदक़े महफ़िल ऐसी कभी जमी ही नहीं कुछ मज़े में हम आ गए ऐसे तौबा पीने से हम ने की ही नहीं कोई ना-ख़ुश 'रियाज़' से क्यूँ हो उस रविश का वो आदमी ही नहीं